कविता संग्रह >> जाल समेटा जाल समेटाहरिवंशराय बच्चन
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जाल-समेटा करने में भी, वक़्त लगा करता है माँझी, मोह मछलियों का अब छोड़।...
Jaal Sameta - A Hindi Book - by Harivansh Rai Bachchan
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
बच्चन जैसे भाव-प्रवण कवि समय के साथ अपनी कविताओं को अनेक रंगों में चित्रित करते हैं। ‘जाल समेटा’ की कविताएँ उन्होंने 1960-70 के दशक में लिखी थीं। लोकप्रियता के शिखर पर पहुंच कर जीवन की वास्तविकता के संबंध में उनके मन में अनेक भाव उठे। ‘जाल समेटा’ में उनकी इन भावनाओं को सजीव करती उत्कृष्ट कविताओं को पढ़िए। बच्चनजी के शब्दों में, ‘‘मेरी कविता मोह से प्रारंभ हुई थी और मोह-भंग पर समाप्त हो गयी।’’
अपने पाठकों से
इस शीर्षक के अन्तर्गत मैं अपने पाठकों से अपनी कृतियों के विषय में कुछ निजी बातें करता रहा हूँ।
इस बार तो बहुत-सी बातें करना चाहता था। पर जब बहुत कुछ कहने को होता है तब आदमी कुछ भी नहीं कह पाता।
वही मेरी हालत है।
मुझे अपनी एक पुरानी कविता याद आती है।
जो मैं आज कहना चाहता था उसे वह, संक्षेप में, पहले ही कह चुकी है। तो वह कविता ही क्यों न प्रस्तुत कर दूँ।
‘त्रिभंगिमा’ की है–
इस बार तो बहुत-सी बातें करना चाहता था। पर जब बहुत कुछ कहने को होता है तब आदमी कुछ भी नहीं कह पाता।
वही मेरी हालत है।
मुझे अपनी एक पुरानी कविता याद आती है।
जो मैं आज कहना चाहता था उसे वह, संक्षेप में, पहले ही कह चुकी है। तो वह कविता ही क्यों न प्रस्तुत कर दूँ।
‘त्रिभंगिमा’ की है–
‘‘जाल-समेटा करने में भी
समय लगा करता है, माँझी,
मोह मछलियों का अब छोड़।
सिमट गई किरणें सूरज की,
सिमटीं पंखुड़ियाँ पंकज की,
दिवस चला छिति से मुँह मोड़।
तिमिर उतरता है अम्बर से,
एक पुकार उठी है घर से,
खींच रहा कोई बे-डोर।
जो दुनिया जगती, वह सोती;
उस दिन की सन्ध्या भी होती,
जिस दिन का होता है भोर।
नींद अचानक भी आती है,
सुध-बुध सब हर ले जाती है,
गठरी में लगता है चोर।
अभी क्षितिज पर कुछ-कुछ लाली,
जब तक रात न घिरती काली,
उठ अपना सामान बटोर।
जाल-समेटा करने में भी,
वक़्त लगा करता है, माँझी,
मोह मछलियों का अब छोड़।
मेरे भी कुछ कागद-पत्रे,
इधर-उधर हैं फैले-बिखरे,
गीतों की कुछ टूटी कड़ियाँ,
कविताओं की आधी सतरें,
मैं भी रख दूँ सबको जोड़।’’
समय लगा करता है, माँझी,
मोह मछलियों का अब छोड़।
सिमट गई किरणें सूरज की,
सिमटीं पंखुड़ियाँ पंकज की,
दिवस चला छिति से मुँह मोड़।
तिमिर उतरता है अम्बर से,
एक पुकार उठी है घर से,
खींच रहा कोई बे-डोर।
जो दुनिया जगती, वह सोती;
उस दिन की सन्ध्या भी होती,
जिस दिन का होता है भोर।
नींद अचानक भी आती है,
सुध-बुध सब हर ले जाती है,
गठरी में लगता है चोर।
अभी क्षितिज पर कुछ-कुछ लाली,
जब तक रात न घिरती काली,
उठ अपना सामान बटोर।
जाल-समेटा करने में भी,
वक़्त लगा करता है, माँझी,
मोह मछलियों का अब छोड़।
मेरे भी कुछ कागद-पत्रे,
इधर-उधर हैं फैले-बिखरे,
गीतों की कुछ टूटी कड़ियाँ,
कविताओं की आधी सतरें,
मैं भी रख दूँ सबको जोड़।’’
‘धीवर’ अथवा ‘माँझी’ का प्रतीक बड़ा पुराना है। इसका आश्रय बुद्ध और ईसा तक ने लिया। अगर एक कवि भी इसका आधार लेकर कुछ अपनी बात कह सका है तो श्रेय प्रतीक की महार्थता को है। व्याख्या की आवश्यकता शायद ही हो।
कविता मोह से आरम्भ होती है–‘मोह’ के बड़े व्यापक अर्थ हैं–और मोहभंग पर समाप्त होती है। नहीं; मैं सामान्यीकरण नहीं करूँगा। मेरी कविता मोह से आरम्भ हुई थी और मोहभंग पर समाप्त हो गई–‘हार’ और ‘जाल’ मोह और मोहभंग के प्रतीक ही तो हैं–आपको याद दिला दूँ कि मेरे प्रथम काव्य-संग्रह का नाम ‘तेरा हार’ था। इसके विघटन के चिह्न तो कुछ समय पहले दिख गए थे, –‘विघटन’ में ‘घट’ का गोलाकार भी मेरे ध्यान में है–पर पूर्णता वहीं पहुँचकर मिली है ठीक जहाँ से वह शुरू हुई थी। शेक्सपियर के शब्दों में, ‘The wheel is come full circle’–एक वृत्त पूर्ण हुआ–साँप ने मुख से पूँछ पकड़ ली–काव्य-यात्रा के लिए यह रूपक मैंने और कहीं भी प्रयुक्त किया है। हाँ, याद आ गया–
कविता मोह से आरम्भ होती है–‘मोह’ के बड़े व्यापक अर्थ हैं–और मोहभंग पर समाप्त होती है। नहीं; मैं सामान्यीकरण नहीं करूँगा। मेरी कविता मोह से आरम्भ हुई थी और मोहभंग पर समाप्त हो गई–‘हार’ और ‘जाल’ मोह और मोहभंग के प्रतीक ही तो हैं–आपको याद दिला दूँ कि मेरे प्रथम काव्य-संग्रह का नाम ‘तेरा हार’ था। इसके विघटन के चिह्न तो कुछ समय पहले दिख गए थे, –‘विघटन’ में ‘घट’ का गोलाकार भी मेरे ध्यान में है–पर पूर्णता वहीं पहुँचकर मिली है ठीक जहाँ से वह शुरू हुई थी। शेक्सपियर के शब्दों में, ‘The wheel is come full circle’–एक वृत्त पूर्ण हुआ–साँप ने मुख से पूँछ पकड़ ली–काव्य-यात्रा के लिए यह रूपक मैंने और कहीं भी प्रयुक्त किया है। हाँ, याद आ गया–
‘कविता का पंथ अनंत सर्प-सा
जो है मुख में पूँछ दवाए।’
जो है मुख में पूँछ दवाए।’
(आरती और अँगारे)
मेरी मोह-मूर्तियों पर आप उँगली रखना चाहें तो कल्पना और प्रयत्न आप स्वयं करें; इस समय मैं आपको किसी प्रकार का संकेत देने की मनःस्थिति में नहीं हूँ।
मैंने मुख्यता कविता के द्वारा अपना पथ प्रशस्त किया था, पर जहाँ तक मैं आ गया हूँ उसके आगे, मुझे लगता है, कविता से प्रगति सम्भव न हो सकेगी; अब तो ‘अकविता’ को उपादान बनाना होगा–यारों ने तो ‘अकविता’ को भी कविता बना दिया है। मुझे यह मोह न व्यापे।
यात्रा आगे सम्भव हुई और उसका वर्णन करने का अवसर मिला तो किसी दूसरे माध्यम से। विदा !
मैंने मुख्यता कविता के द्वारा अपना पथ प्रशस्त किया था, पर जहाँ तक मैं आ गया हूँ उसके आगे, मुझे लगता है, कविता से प्रगति सम्भव न हो सकेगी; अब तो ‘अकविता’ को उपादान बनाना होगा–यारों ने तो ‘अकविता’ को भी कविता बना दिया है। मुझे यह मोह न व्यापे।
यात्रा आगे सम्भव हुई और उसका वर्णन करने का अवसर मिला तो किसी दूसरे माध्यम से। विदा !
–बच्चन
अनुक्रम
१. | रक्त की लिखत |
२. | रक्षात्मक आक्रमण |
३. | चेक आत्मदाही |
४. | अग्निदेश |
५. | रावण-कंस |
६. | नेतृत्व का संकट |
७. | दिल्ली की मुसीबत |
८. | संघर्ष-क्रम |
९. | सन् 2068 की हिंदी कक्षा में |
१॰. | मेरा संबल |
११. | शरद् पूर्णिमा |
१२. | ...नई दिल्ली किसकी है ? |
१३. | रेखाएँ |
१४. | एक पावन मूर्ति |
१५. | विजयानगरम् की सुराही |
१६. | सागर-तीरे |
१७. | अकादमी पुरस्कार |
१८. | प्रेम की मंद मृत्यु |
१९. | पानी-पत्थर |
२॰. | मध्यस्थ |
२१. | लब्धि-उपलब्धि |
२२. | स्वप्न और सीमाएँ |
२३. | ग़लतफ़हमी |
२४. | कड़ुआ पाठ |
२५. | उन्होंने कहा था |
२६. | अक़्लमंदाना इशारा |
२७. | बुढ़ापा |
२८. | कामर |
२९. | बूढ़ा किसान |
३॰. | एक नया अनुभव |
३१. | मौन और शब्द |
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